शिक्षा की उपेक्षा को लगभग एक शताब्दी होना खेदपूर्ण है। हम सभी विवशता में यथास्थिति के जीवन को जी रहे हैं जो कि दोषपूर्ण है शिक्षा जो कि देश का मुख्य आधार होती है जिससे नागरिकों के जीवन शिक्षा से रिक्त है। जारी शिक्षा कथनी की देन तो है परन्तु करनी से इसका सम्बन्ध नहीं है। इसीलिए पूरा देश कर्तव्यों से खाली है। हम मात्र शिक्षा की औपचारिकतायें ओढतें हैं। हमारा शिक्षा के बिना पूरा जीवन नगण्य है इसलिए हम यथास्थितियों को दोहरातेे हैं।
हम व्यक्तिगत जीवन अवश्य संवारते हैं परन्तु देश का जीवन लीपा-पोती भर का है। हमे देश के हर जीवन को सत्य से वाकिफ कराना चाहिए ताकि पडोसी या कोई भी देश हमारा अहित न कर सके। हमें अपने देश के जीवन को कथनी और कागजों से नहीं अपितु करनी कर्तव्य और निष्काम कर्म से सुदृढ बनाना चाहिए। हमें अपनी जीवन शैली को गरीब और अभावों से मुक्त बनाना चाहिए। एक शताब्दि के बाद भी हमें कागजी शिक्षा से जुडना मंजूर नहीं अपितु सत्य कर्तव्य से जुडकर हम जीवन में शिक्षा लेना चाहते हैं ताकि विश्व के जीवन में प्रेम और सेवा को बोया जा सके। कागजी शिक्षा और कार्य प्रणाली से भारत और विश्व में अंधेरा ही रहेगा और इसका निर्जीव अचेत कार्यान्वयन भी लापरवाही वाला होगा।
लेखक – चित्रश्याम शर्मा(विनय), देहरादून